वर्धा की आखिरी रात
मुसाफिर हैं हम भी, मुसाफिर हो तुम भी
फिर किसी मोड पर मुलाकात होगी।
आज मेरा वर्धा की आखिरी रात है कल शाम को जाना है यह कहते हुए दुख भी है कि मेरा चयन इस विश्वविद्यालय में नहीं हुआ और खुशी भी की एमफिल के लिए मेरा चयन देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर में हो गया है। अब मुझे जाना ही होगा। वर्धा में कैसे दो साल बीता पता ही नहीं चला। सब समय का चक्र है। किसी भी छात्र को जब संस्थान छोडकर जाना होता है तो यह उसके लिए सबसे बुरा दिन होता है। जब व छात्र वहां अध्ययन करना चाह रहा हो। मैंने अपना पूरा सामान समेट लिया है। यहां कुछ नहीं छोडा हूं लेकिन ऐसा लग रहा है कि मैं यहां बहुत कुछ छोड कर जा रहा हूं। हमेशा यह डर लग रहा है कि कहीं मैं कुछ भूल न जाउं। मैं खुश हूं कि मैं कोई सामान नहीं बल्कि दो साल वर्धा में अपने मित्रों, अध्यापकों, अग्रज और अनुजों के साथ बिताए संबंधों को छोड कर जा रहा हूं। जिसकी नींव बहुत मजबूत है। एक नई उर्जा और जोश के साथ आज मैं अपने कदमों को जिस दिशा में बढा रहा हूं यह सोच मुझे वर्धा विश्वविद्यालय से ही मिला। मैं आभारी हूं विश्वविद्यालय के सीनियर और जूनियर छात्रों, अपने सहपाठियों, विश्वविद्यालय के कर्मचारियों और संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र सहित विश्वविधालय के सभी अध्यापकों का जिनका सहयोग और सही मार्गदर्शन ने जीवन में नई दिशा और जोश के साथ काम करना सिखलाया। यही सहयोग और स्नेह ने वर्धा के प्रति लगाव पैदा कर दिया । मैं खुश हूं कि जिस धरती पर गांधीजी ने 12 वर्ष तक अपना डेरा लगाया उसी धरती पर मुझे भी दो साल रहने और कई पुराने अवशेषों को देखने और समझने का मौका मिला। जो अब सिर्फ चिन्हों और आकृतियों में रह गया है। अंत में मैं विश्वविद्यालय में चयनित सभी साथियों को बधाई देता हूं। जिनका चयन नहीं हुआ व भी अपने आप को कम न आकें, उनकी प्रतिभा भी एक दिन रंग लाएगी। किसी ने सही ही कहा है चलने वाले ही ठोकर खाते हैं। इसलिए आप बिना सोचे निरंतर चलते रहें। आप सभी लोग अपने जीवन में जहां भी रहें सफल रहें। ईश्वर से हमारी यही कामना है। हमलोग मिलेंगे साथी एक दिन, हमलोग मिलेंगे ………………………..इन्हीं चंद शब्दों के साथ मैं आपसे कल शाम विदा लूंगा।
फिर किसी मोड पर मुलाकात होगी।
आज मेरा वर्धा की आखिरी रात है कल शाम को जाना है यह कहते हुए दुख भी है कि मेरा चयन इस विश्वविद्यालय में नहीं हुआ और खुशी भी की एमफिल के लिए मेरा चयन देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इन्दौर में हो गया है। अब मुझे जाना ही होगा। वर्धा में कैसे दो साल बीता पता ही नहीं चला। सब समय का चक्र है। किसी भी छात्र को जब संस्थान छोडकर जाना होता है तो यह उसके लिए सबसे बुरा दिन होता है। जब व छात्र वहां अध्ययन करना चाह रहा हो। मैंने अपना पूरा सामान समेट लिया है। यहां कुछ नहीं छोडा हूं लेकिन ऐसा लग रहा है कि मैं यहां बहुत कुछ छोड कर जा रहा हूं। हमेशा यह डर लग रहा है कि कहीं मैं कुछ भूल न जाउं। मैं खुश हूं कि मैं कोई सामान नहीं बल्कि दो साल वर्धा में अपने मित्रों, अध्यापकों, अग्रज और अनुजों के साथ बिताए संबंधों को छोड कर जा रहा हूं। जिसकी नींव बहुत मजबूत है। एक नई उर्जा और जोश के साथ आज मैं अपने कदमों को जिस दिशा में बढा रहा हूं यह सोच मुझे वर्धा विश्वविद्यालय से ही मिला। मैं आभारी हूं विश्वविद्यालय के सीनियर और जूनियर छात्रों, अपने सहपाठियों, विश्वविद्यालय के कर्मचारियों और संचार एवं मीडिया अध्ययन केंद्र सहित विश्वविधालय के सभी अध्यापकों का जिनका सहयोग और सही मार्गदर्शन ने जीवन में नई दिशा और जोश के साथ काम करना सिखलाया। यही सहयोग और स्नेह ने वर्धा के प्रति लगाव पैदा कर दिया । मैं खुश हूं कि जिस धरती पर गांधीजी ने 12 वर्ष तक अपना डेरा लगाया उसी धरती पर मुझे भी दो साल रहने और कई पुराने अवशेषों को देखने और समझने का मौका मिला। जो अब सिर्फ चिन्हों और आकृतियों में रह गया है। अंत में मैं विश्वविद्यालय में चयनित सभी साथियों को बधाई देता हूं। जिनका चयन नहीं हुआ व भी अपने आप को कम न आकें, उनकी प्रतिभा भी एक दिन रंग लाएगी। किसी ने सही ही कहा है चलने वाले ही ठोकर खाते हैं। इसलिए आप बिना सोचे निरंतर चलते रहें। आप सभी लोग अपने जीवन में जहां भी रहें सफल रहें। ईश्वर से हमारी यही कामना है। हमलोग मिलेंगे साथी एक दिन, हमलोग मिलेंगे ………………………..इन्हीं चंद शब्दों के साथ मैं आपसे कल शाम विदा लूंगा।
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