मीडिया और राजनीति का रंग।



होली का रंग आसानी से एक दो दिन में छुट जाता है, राजनीति का रंग राजनीति के समय चढता है और उतर जाता है, अपने चरित्र पर चढा रंग बर्षों नहीं उतरता है और वर्षों लगने के बाद चढता है। सभी लोग किसी न किसी रंग में रंगना जरूर पसंद करता है। रंग काला ही क्‍यों न हो रंगना सब कोई चाहता है। काला रंग अंधकार का प्रतिक माना जाता है लेकिन इसका भी अपना अलग मजा है। काले का आस्तित्‍व सफेद पर टिका होता है। सामान्‍यत: माना जाता है कि काला रंग शुभ नहीं होता है लेकिन काली कमाई को कभी भी अशुभ नहीं माना जाता है। ।काला का अपना आकर्षण एवं महत्‍व है। फिर चाहे काला धन हो या काली कमाई इसका आकषर्ण और महत्‍व सबसे अलग होता है।
आज मीडिया भी बाजार का रूप ले चुका है ऐसे में हर कोई बोली लगा रहा है। दूसरे को धटिया बताकर अपने को उत्‍कृष्‍ट बता रहा है। आम जनता और जनजनहित के मुद्धे तो काेसों पीछे छुट गए हैं। प्रिंट मीडिया हो या इलक्‍ट्रानिक मीडिया दिन भर मोदी, राहूल और केजरीवाल जी की प्रतिभा दिखाने में लगा है जैसे आज तक इन तीनों के अलावा कोई नेता पैदा लिया ही न हो। समय है, टेलीविजन चैनलों के टीआरपी की समाचार पत्र के प्रचार प्रसार का ऐसे में कोई भी एक दूसरे से मात नहीं खाना चाहता है। कल को कौन देखा है हो सकता है देश के अगले प्रधानमत्री नरेन्‍द्र मोदी जी हों। आजदी के पूर्व राजनेता मीडिया की चाल को समझते थे, उसके हिसाब से कार्य करते थे। आज मीडिया राजनेता के चाल को समझने लगी है। यह काफी करीबी मामला है। जो मीडिया और राजसत्‍ता के अंतर्संबंध को दर्शाता है।
निष्‍कर्ष के रूप में कहें तो यह गलत नहीं होगा कि मीडिया राजनेता और राजसत्‍ता के रंग में रंग गया है, यह रंग वर्षों नहीं छुटता है। साबुन का तो असर ही नहीं होता है। यहां असर करता है सत्‍ता की चाल और रूपए की गांठ। हवा बनाने और बिगाडने के लिए।

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