डाॅ. अर्जुन तिवारी जी का साक्षात्‍कार।

डाॅ. अर्जुन तिवारी जी का साक्षात्‍कार। भडास पर देखने के लिए क्लिक करें। http://bhadas4media.com/interview/7133-arjun-tiwari
डॉ. अर्जुन तिवारी 

भारत में पत्रकारिता शिक्षा की नींव और पत्रकारिता शिक्षा को दिशा देने में डॉ. अर्जुन तिवारी की भूमिका महत्वपर्ण रही है। सही मायने में इन्हें पत्रकारिता गुरु कहा जाय तो गलत नहीं होगा। ‘‘हिन्दी पत्रकारिता का उदभव और विकास’’ पर पीएच.डी. करने के बाद इन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अब तक पत्रकारिता की 20 से ज्यादा पुस्तकें लिखने वाले डॉ. तिवारी को नामित पुरस्कार, सम्पादन पदक, बाबूराव विष्णु पराड़कर पुरस्कार और पत्रकारिता-भूषण साहित्य गौरव पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। हाल में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने उन्हें तीन अगस्त 2015 को लोक साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यान’’ पुरस्कार देने की घोषणा की है। यह पुरस्कार 14 सितंबर को दिया जाएगा। डॉ. अर्जुन तिवारी भाटपाररानी, देवरिया के मूल निवासी हैं। 1965 में भाटपाररानी से शैक्षणिक कार्य की शुरुआत की। इसके बाद 1994 में काशी विद्यापीठ के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हुए और 2002 में सेवानिवृत्त हुए। इसके बाद हिन्दी प्रोत्साहन समिति के अध्यक्ष के रूप में दक्षिण भारत के 16 विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग की स्थापना कराई। साथ ही इन्होंने रांची, चित्रकूट, मुजफ्फरपुर और गोरखपुर में पत्रकारिता संस्थान शुरू किया जो आज भी अनवरत चल रहा है। वर्तमान में भोजपुरी-हिन्दी-अंगेजी शब्दकोश पर महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा में कार्य कर रहे हैं।

आप अपने पत्रकारिता जीवन के बारे में बताएं?
सही मायने में हर व्यक्ति में कोई न कोई दमित इच्छा रहती है। कुछ इच्छाएं जो दब जाती है उसका व प्रस्फुटन देखना चाहता है। हम जब छोटी कक्षाओं में पढ़ते थे तब तुलसी, शुक्ल, बिष्णु राव पराड़कर और गणेश शंकर विद्यार्थी को याद किया करते थे। उस समय हमारे गुरुजी ने कहा था कि हमारे विद्यार्थी भी ऐसा काम करेंगे कि आनेवाले समय में उन्हें याद किया जाएगा। एक दिन अपने गांव के स्टेशन पर हिन्दी के महापुरूष सीताराम चतुर्वेदी से मुलाकात हुई। अच्छे लेखक और वक्ता कैसे बनें? ये पूछने पर चतुर्वेदी जी ने रोज लिखने का सलाह दिया और मुझे गाण्डीव अखबार जो बनारस से प्रकाशित होता था, में जाने को कह दिया। मैं वहां संवाददाता के रूप में कार्य करने लगा। कभी-कभी मैं वहां संपादकीय भी लिखा करता था। वहां मुझे काफी सम्मान मिला। इसके बाद मैंने स्वतंत्र भारत, पायनियर और दैनिक जागरण में भी काम किया। इसके बाद मैं विष्वविद्यालय शिक्षा में आ गया और पत्रकारिता की दुनिया में भी लेखन का कार्य करते रहा। 


पत्रकारिता शिक्षा का प्रारंभिक दौर कैसा था?
काशी विद्यापीठ, वाराणसी में पत्रकारिता के प्रारंभिक दिनों में विभाग का नाम ‘संवाद कला’ रखा गया। फिर 10 साल बाद इसका नाम बदलकर ‘संवाद शास्त्र' रख दिया गया। इसके बाद सन 1975 आते-आते इस विभाग का नाम 'पत्रकारी विज्ञान' रखा गया। 1980 के आसपास यह विभाग 'पत्रकारिता विभाग' के नाम से जाना जाने लगा। जब विभाग का विभागध्यक्ष मैं बना तब विभाग का नाम पत्रकारिता और जनसंचार विभाग रखा गया जो आज भी चल रहा है।  



पत्रकारिता अकादमिक शिक्षा में किस तरह के बदलाव की जरूरत है?
पत्रकार को स्पष्टवादी होना चाहिए। मैं साफ शब्दों में कहूं तो ''पहले की पत्रकारिता बहुत अच्छी थी और आज की पत्रकारिता खराब है'' जैसे एक्स्ट्रीम यानि इन दोनों धुर के हम विरोधी हैं। पहले की पत्रकारिता प्रारंभिक दौर में थी उस समय उसकी शुरुआत हुई थी और आज की पत्रकारिता बहुत ही परिपक्व हो गई है। दोनों में काफी अंतर है। पहले पत्रकारिता में सिर्फ चार पेपर संपादन कला, पत्रकारिता का इतिहास, रेडियो और विज्ञापन पढ़ाया जाता था। आज एम.ए. पत्रकारिता में छात्रों को 16 पेपर पढ़ना पड़ता है। यही पत्रकारिता शिक्षा का बदलाव है। 



मीडिया शिक्षा कमाई का जरिया बन गया है। आप इसे किस रूप में देखते हैं?
भारत में सब जगह विकृति है लेकिन शिक्षा में सबसे ज्यादा विकृति देखने को मिलती है। मीडिया विद्यार्थियों को प्राइवेट संस्थाएं ठग रही हैं। मीडिया का आकर्षण और ग्लैमर देखकर विद्यार्थी इस ओर खिंचे आ रहे हैं। कई निजी संस्थाओं में नामांकन से लेकर पास कराने और नौकरी देने का झांसा भी दिया जाता है। समय-समय पर सरकार के द्वारा निजी संस्थानों की जांच की जानी चाहिए। 



वर्तमान समय की पत्रकारिता को किस रूप में देखते हैं?
पहले इंटरनेट नहीं था। लोग कागज कलम के धनी थे। कागज पर लिखना, कागज पर खाना और कागज पर मर जाना। आज की पत्रकारिता पेपरलेस और पेनलेस हो गई है। इसका प्रभाव व्यापक है। पत्रकारिता मौन हो जाता तो 90 प्रतिशत मंत्री अरबपती बन गए होते। आज की पत्रकारिता से लोग डर रहे हैं। पत्रकारिता को चौथे स्तंभ की संज्ञा से नवाजा गया है। कहा जाता है आपके पास अखबार है तो सेना से डरने की कोई बात नहीं है। लाख आलोचना के बाद भी लोगों की जरूरत और नेताओं का डर का नाम है पत्रकारिता। 



मीडिया शिक्षा में सरकार से आपकी क्या अपेक्षा है?
मीडिया शिक्षा को लेकर सरकार से हमारी अपेक्षा बहुत ज्यादा है। अभी देश में केवल दो प्रांतों में पत्रकारिता विश्वविद्यालय है। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यलाय, भोपाल और कुशाभाउ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर में बहुत अच्छा कार्य हो रहा है। मैं सरकार से यह अपेक्ष रखता हूं कि देश के सभी प्रातों में एक-एक पत्रकारिता विश्वविद्यलाय खोला जाए। पत्रकारिता का पाठ्यक्रम बहुत ही व्यापक है। पत्रकारिता हर विषय से संबंधित है। हर प्रांत की बोली-भाषा अलग-अलग है। सभी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में स्थानीय रिपोर्टिंग का पाठ्यक्रम भी पढ़ाया जाय जिससे वहां के छात्र उस प्रदेश में आसानी से काम कर सकते हैं।

साक्षात्कारकर्ता निरंजन कुमार महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पीएचडी शोधार्थी हैं. उनसे संपर्कnkbmc1@gmail.com या 09370553669 के जरिए किया जा सकता है.

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