टेलीविजन विज्ञापन में नारी चरित्र और पूंजीवादी व्यवस्था


टेलीविजन विज्ञापन में नारी चरित्र और पूंजीवादी व्यवस्था
आज हम उच्च प्रौद्योगिकी के ऐसे दौर में प्रवेश कर चुके हैं जहां अंतरराष्ट्रीय सीमाएं टूट गई है। पूरा विश्व एक गलोबल विलेजकी अवधारणा में समा गया है। दूरसंचार की तकनीकी पहुंच और तीव्रता कुछ ही क्षणों में लाखों करोडों लोगों तक सूचना पहंुचाने का काम कर रही है। ऐसे में विज्ञापन भी समाज में अपने सिक्के और पैर जमाने के लिए ताल ठोककर पूंजीवादी व्यवस्था के साथ खडा़ हो गया।
भूमंडलीकरण के दौर में विकसित देशों ने विकासशील देशों के बाजार पर अपना सिक्का जमाने के लिए विलासिता संस्कृति को फैलाया उससे पूरे विज्ञापन जगत को लाभ मिला। आज विज्ञापन हमारे चारो और छाया हुआ है। इसके बिना हम बेहतर समाज की कल्पना नहीं कर सकते हैं। विज्ञापन उत्पाद और उपभोक्ता के बीच सेतु का काम करता है।
लेकिन समय बदला और परिभाषा बदल गई। समाज के प्रत्येक क्षेत्र में बाजार और बढती पूंजीवादी व्यवस्था ने अपना सिक्का जमा लिया है। परिणामतः बाजार को समाज की जरूरत न होकर समाज को बाजार की जरूरत बनना पडा़।
भारत में 1990 से पहले टेलीविजन चैनलों में सिर्फ दूरदर्शन था, लेकिन सन 1991 के आर्थिक नीति के बाद भारत में प्राइवेट टेलीविजन चैनल का विकास हुआ। प्राइवेट टेलीविजन के आते ही कम लागत और ज्यादा कमाने की चाहत मीडिया उद्योग में भी होने लगी। जिसके फलस्वरूप मीडिया का समाजीकरण न होकर बाजारीकरण होने लगा। बाजार में प्रवेश करते ही प्रतिस्पर्धा की होड़़़ में टेलीविजन ने महिलाओं का सहारा लेना शुरू कर दिया। और पूंजीवादी व्यवस्था से भी अपना परिचय बढा लिया।
बाजार पहले भी था और आज भी है लेकिन बाजार की अवधारणा अब बदल गई है। इसका मुख्य उद्देश्य सिर्फ मुनाफा और मुनाफा कमाना होता है। आर्थिक नीति के समय भारत के वित मंत्री डा. मनमोहन सिंह थे, जो बहुत बडे अर्थशास्त्री हैं। यही हाल पाकिस्तान और बांग्लादेश का था जिसके वित मंत्री भी अर्थशास्त्री थे। जिसने पूरे बाजार को उन्मुक्त कर दिया। विकसित राष्ट्रों का उत्पाद अब विकासशील राष्ट्रों में खपना शुरू हो गया। जिसके बाद विकसित राष्ट्रों ने अपने हिसाब से बाजार की नीतियां बनानी शुरू कर दी और चंद पूंजीपतियों को साथ लेकर भारतीय बाजार और संस्कृति पर विज्ञापन के जरिए हमला करना शुरू कर दिया। जिसके फलस्वरूप पूंजीपतियों का विकास हुआ लेकिन भारतीय संस्कृति बिखरती चली गई और बाजार पर सरकारी और सामाजिक नियंत्रण नहीं रहा।
टेलीविजन विज्ञापन में भी चंद पूंजीपतियों और विकसित राष्ट्रों ने विज्ञापन के जरिए भारतीय समाज में विदेशी संस्कृति का विस्तार करना शुरू कर दिया ताकि भारत उनके उत्पाद के लिए एक बडा बाजार बन सके।
विश्व में टेलीविजन विज्ञापन की शुरूआत अमरीका में 18 जुलाई 1941 में हुआ। भारत में पहला विज्ञापन दूरदर्शन ने 1978 में प्रसारित किया। टेलीविजन विज्ञापन में महिलाएं पहले भी आती थी और वर्तमान में भी लेकिन अब इसके पहनावा और रूपसज्जा में काफी बदलाव आया है। यह बदलाव विकसित राष्ट्रों की देन है।
टेलीविजन विज्ञापन में उत्पाद को नहीं वरन् महिलाओं के छोटी-स्कर्ट और उभरी हुई नितम्बों की और इशारा करता हुआ विज्ञापन समाज को नई दिशा देने का काम कर रहा है। पुरूष उपयोगी सामान का विज्ञापन भी महिलाओं के द्वारा किया जा रहा है। जूते के विज्ञापन में जूते को न दिखाकर लडकियों के मिनी स्कर्ट की और इशारा किया जाता है। ऐसे कई विज्ञापन हैं जो उत्पाद को कम फोकस करके महिलाओं के अंगों को दिखाने में लगे रहते है। जैसे उत्पाद कोई वस्तु नहीं बल्कि नारी शरीर है।
भारत में महिलाओं को देवी के समान माना जाता है। कहा जाता है ‘‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’’ यानि जहां नारी की पूजा की जाती है वहीं देवता मतलब समृद्धि का वास होता है। लेकिन आधुनिक युग में नारी का एक और रूप उभरकर सामने आया है जहां उसे सिर्फ भोग की वस्तु बनाकर रख दिया गया है।
वर्तमान समय में उत्पाद का कम और नारी शरीर का ज्यादा विज्ञापन किया जाता है। इस तरह के विज्ञापन समाज को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। समय रहते इस पर रोक नहीं लगाया गया तो भविष्य में इसके परिणाम विस्फोटक हो सकते हैं, जो पूरे देश की संस्कृति को समाप्त कर सकता है।

Comments

Popular posts from this blog

विज्ञापन का इतिहास अर्थ,परिभाषा,प्रकार एवं आचार संहिता

जनसंचार का सबसे प्रभावी माघ्यम है सिनेमा।

संचार शोध